बाटते रहने की मजबूरी
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पिछले दिनों हमने भारत बर्ष में विज्ञान सम्बंधित समाचारों को प्रकाशित करने के तरीके के बारे में लिखा था। हमने लिखा था की किस तरह से विज्ञान के तथ्य पिछली सीटो पर चले जाते है और मसालेदार चीज़े आगे आ जाती है। लोगो के पास अगर वैज्ञानिक सूचनाये अगर सटीक ढंग से न पहुचे तो भी चल जाता है पर अगर सामाजिक समाचारों में अगर मसाले मिलाये जाए तो समाज टूटता है। ये दोहरे मापदंड हमेशा से समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हुए है। कल परसों मैंने एक समाचार पढ़ा। कैसे भारतीय लोकसभा के सदस्यों के एक दल ने असम के दंगो के पीड़ित लोगो के सहायता करने में असफल सरकार की आलोचना की है। तो इस समाचार का शीर्षक भारत बर्ष के एक प्रमुख समाचार पत्र में इस प्रकार से थी. मेरा प्रश्न ये है की क्या सिर्फ 'लोक सभा सदस्य (एम् पी )' लिखना काफी नहीं था उन सदस्यों के धर्म को लिखना क्या आवश्यक था?? हर चीज़ को इतना बाटना क्यों जरूरी। अगर भारत बर्ष एक 'सेकुलर स्टेट' है तो यहाँ पर कोई किसी से उसके धर्म को ले पीछे क्यों पडा रहता है। आखित बटे रहने की भी इतनी मजबूरी क्यों है?? अजीब तो तब लगता है जब हम अपने सामाजिक धरोहरों को भी धर्म और जाति के चश्मे से देखना शुरू कर देते है। यह बस भारत बर्ष में ही संभव है की जब कोई जवान शहीद होता है तो हमारी मीडिया उनके नाम से ज्यादा उनके धर्म और जाति में रुची लेना शुरू कर देती है। वो शहीद किस राज्य से सम्बंधित थे इसकी भी सूची निकलती है। इसलिए नहीं की इससे शहीदों के घर वालो को शाहुलियत होगी बल्कि इसलिए की कुछ लोगो के राजनितिक और सामाजिक अहंकार के दिए को तेल मिलता है
अभी कुछ दिनों पहले सहीद सिद्दीकी ने नरेन्द्र मोदी का एक साक्षात्कार लिया अपने नई दुनिया अखबार के लिए। आप उसका ऑडियो ऊपर दिया हु। आप सुन के हैरान होंगे की कैसे सारी सोचसारे प्रश्न का सिर्फ एक ही केंद्र शब्द था और वो था 'मुस्लिम'. और कारण एक ही था की वो उस राज्य के मुख्यमंत्री थे जहा पर धर्म के नाम पे दंगे हो चुके है। पर जब आप एक राज्य के मुख्यमंत्री होते है तो क्या आप क्या धर्म पे आधारित योजनाए बनाए तो ही आप किसी का ख्याल रखते है? अगर इन साड़ी बुराइयों को समाज से निकालना है तो सबसे पहले हमे इन्हें भुलाना होगा। बहुत सारी ताकते है जिनकी सारी गणनाए जाति धर्म को ले के शुरू होती है और वाही खत्म हो जाती है और आश्चर्य होता है की ये वही लोग है जो खुद को धर्म निरपेक्ष कहते नहीं थकते है। इमानदार होना पडेगा हमें। उस जोगी की तरह नहीं जो घर से तो चला जाता है पर सारी उम्र बस भूल नहीं पाता की वो कितना कुछ छोड़ के चला आया। तो होता ये है की हम शरीर से दूर रहते है पर उन चीजों से कभी नहीं निकल पाते। हमे सावधान होगा उन शक्तियों से जो बाटते रहते है हमे।
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